Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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सूरदास भौंचक्का-सा रह गया। उसे स्वप्न में भी न सूझा था कि मिठुआ के मुँह से मुझे कभी ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ेंगी। उसे अत्यंत दु:ख हुआ, विशेष इसलिए कि ये बातें उस समय कही गई थीं, जब वह शांति और सांत्वना का भूखा था। जब यह आकांक्षा थी कि मेरे आत्मीय जन मेरे पास बैठे हुए मेरे कष्ट-निवारण का उपाय करते होते। यही समय होता है, जब मनुष्य को अपना कीर्ति-गान सुनने की इच्छा होती है, जब उसका जीर्ण हृदय बालकों की भाँति गोद में बैठने के लिए, प्यार के लिए, मान के लिए, शुश्रूषा के लिए ललचाता है। जिसे उसने बाल्यावस्था से बेटे की तरह पाला, जिसके लिए उसने न जाने क्या-क्या कष्ट सहे, वह अंत समय आकर उससे अपने हिस्से का दावा कर रहा था! आँखों से आँसू निकल आए। बोला-बेटा, मेरी भूल थी कि तुमसे किरिया-करम करने को कहा। तुम कुछ मत करना। चाहे मैं पिंडदान और जल के बिना रह जाऊँ, पर यह उससे कहीं अच्छा है कि तुम साहब से अपना मुआवजा माँगो। मैं नहीं जानता था कि तुम इतना कानून पढ़ गए हो, नहीं पैसे-पैसे का हिसाब लिखता जाता।
मिठुआ-मैं अपने मुआवजे का दावा जरूर करूँगा। चाहे साहब दें, चाहे सरकार दे; चाहे काला चोर दे, मुझे तो अपने रुपये से काम है।
सूरदास-हाँ सरकार भले ही दे दे; साहब से कोई मतलब नहीं।
मिठुआ-मैं तो साहब से लूँगा, वह चाहे जिससे दिलाएँ। न दिलाएँगे, तो जो कुछ मुझसे हो सकेगा, करूँगा। साहब कुछ लाट तो हैं नहीं। मेरी जाएदाद उन्हें हजम न होने पाएगी। तुमको उसका क्या कलक था। सोचा होगा, कौन मेरा बेटा बैठा हुआ है, चुपके से बैठे रहे। मैं चुपके बैठनेवाला नहीं हूँ।
सूरदास-मिट्ठू, क्यों मेरा दिल दुखाते हो? उस जमीन के लिए मैंने कौन-सी बात उठा रखी! घर के लिए तो प्राण तक दे दिए। अब और मेरे किए क्या हो सकता था? लेकिन भला बताओ तो, तुम साहब से कैसे रुपये ले लोगे? अदालत में तो तुम उनसे ले नहीं सकते, रुपयेवाले हैं, और अदालत रुपयेवालों की है। हारेंगे भी, तो तुम्हें बिगाड़ देंगे। फिर तुम्हारी जमीन सरकार ने जापते से ली है; तुम्हारा दावा साहब पर चलेगा कैसे?
मिठुआ-यह सब पढ़े बैठा हूँ। लगा दूँगा आग, सारा गोदाम जलकर राख हो जाएगा। (धीरे से) बम-गोले बनाना जानता हूँ। एक गोला रख दूँगा, तो पुतलीघर में आग लग जाएगी। मेरा कोई क्या कर लेगा!
सूरदास-भैरों, सुनते हो इसकी बातें, जरा तुम्हीं समझाओ।
भैरों-मैं तो रास्ते-भर समझाता आ रहा हूँ; सुनता ही नहीं।
सूरदास-तो फिर मैं साहब से कह दूँगा कि इससे होशियार रहें।
मिठुआ-तुमको गऊ मारने की हत्या लगे, अगर तुम साहब या किसी और से इस बात की चरचा तक करो। अगर मैं पकड़ गया, तो तुम्हीं को उसका पाप लगेगा। जीते-जी मेरा बुरा चेता, मरने के बाद काँट बोना चाहते हो? तुम्हारा मुँह देखना पाप है।
यह कहकर मिठुआ क्रोध से भरा हुआ चला गया! भैरों रोकता ही रहा, पर उसने न माना। सूरदास आधा घंटे तक मूरच्छावस्था में पड़ा रहा। इस आघात का घाव गोली से भी घातक था। मिठुआ की कुटिलता, उसके परिणाम का भय, अपना उत्तारदायित्व, साहब को सचेत कर देने का कर्तव्य, यह पहाड़-सी कसम, निकलने का कहीं रास्ता नहीं, चारों ओर से बँधा हुआ इसी असमंजस में पड़ा हुआ था कि मिस्टर जॉन सेवक आए। सोफिया भी उनके साथ फाटक से चली। सोफी ने दूर ही से कहा-सूरदास, पापा तुमसे मिलने आए हैं। वास्तव में मिस्टर सेवक सूरदास से मिलने नहीं आए थे, सोफी से समवेदना प्रकट करने का शिष्टाचार करना था। दिन-भर अवकाश न मिला। मिल से नौ बजे चले, तो याद आई, सेवा-भवन गए, वहाँ मालूम हुआ कि सोफिया शफाखाने में है, गाड़ी इधर फेर दी। सोफिया रानी जाह्नवी की गाड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसे धयान भी न था कि पापा आते होंगे। उन्हें देखकर रोने लगी। पापा को मुझसे प्रेम है, इसका उसे हमेशा विश्वास रहा,और यह बात यथार्थ थी। मिस्टर सेवक को सोफिया की याद आती रहती थी। व्यवसाय में व्यस्त रहने पर भी सोफिया की तरफ से वह निश्चिंत न थे। अपनी पत्नी से मजबूर थे, जिसका उनके ऊपर पूरा आधिपत्य था। सोफी को रोते देखकर दयार्द्र हो गए, गले से लगा लिया और तस्कीन देने लगे। उन्हें बार-बार यह कारखाना खोलने पर अफसोस होता था, जो असाधय रोग की भाँति उनके गले पड़ गया था। इसके कारण पारिवारिक शांति में विघ्न पड़ा, सारा कुनबा तीन-तेरह हो गया, शहर में बदनामी हुई, सारा सम्मान मिट्टी में मिल गया, घर के हजारों रुपये खर्च हो गए और अभी तक नफे की कोई आशा नहीं। अब कारीगर और कुली भी काम छोड़-छोड़कर अपने घर भाग जा रहे थे। उधर शहर और प्रांत में इस कारखाने के विरुध्द आंदोलन किया जा रहा था। प्रभुसेवक का गृहत्याग दीपक की भाँति हृदय को जलाता रहता था। न जाने खुदा को क्या मंजूर था।

मिस्टर सेवक कोई आधा घंटे तक सोफिया से अपनी विपत्तिा कथा कहते रहे। अंत में बोले-सोफी, तुम्हारी मामा को यह सम्बंध पसंद न था, पर मुझे कोई आपत्तिा न थी। कुँवर विनयसिंह जैसा पुत्र या दामाद पाकर ऐसा कौन है, जो अपने को भाग्यवान् न समझता। धर्म-विरुध्द होने की मुझे जरा भी परवा न थी। धर्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है। अगर वह हमारी आत्मा को शांति और देह को सुख नहीं प्रदान कर सकता, तो मैं उसे पुराने कोट की भाँति उतार फेंकना पसंद करूँगा। जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए; उससे जितनी जल्द हम अपना गला छुड़ा लें, उतना ही अच्छा। मुझे हमेशा इसका दु:ख रहेगा कि परोक्ष या अपरोक्ष रीति से मैं तुम्हारा द्रोही हुआ। अगर मुझे जरा भी मालूम होता कि यह विवाद इतना भयंकर हो जाएगा और इसका इतना भीषण परिणाम होगा, तो मैं उस गाँव पर कब्जा करने का नाम भी न लेता। मैंने समझा था कि गाँववाले कुछ विरोध करेंगे, लेकिन धमकाने से ठीक हो जाएँगे। यह न जानता था कि समर ठन जाएगा। और उसमें मेरी ही पराजय होगी। यह क्या बात है सोफी, कि आज रानी जाह्नवी ने मुझसे बड़ी शिष्टता और विनय का व्यवहार किया?मैं तो चाहता था कि बाहर ही से तुम्हें बुला लूँ, लेकिन दरबान ने रानीजी से कह दिया और वह तुरंत बाहर निकल आईं। मैं लज्जा और ग्लानि से गड़ा जाता था और वह हँस-हँसकर बातें कर रही थीं। बड़ा विशाल हृदय है। पहले का-सा गरूर नाम को न था। सोफी, विनयसिंह की अकाल मृत्यु पर किसे दु:ख न होगा; पर उनके आत्मसमर्पण ने सैकड़ों जान बचा लीं, नहीं तो जनता आग में कूदने को तैयार थी। घोर अनर्थ हो जाता। मि. क्लार्क ने सूरदास पर गोली तो चला दी थी, पर जनता का रुख देखकर सहमे जाते थे कि न जाने क्या हो। वीरात्मा पुरुष था, बड़ा ही दिलेर!

इस प्रकार सोफिया को परितोष देने के बाद मि. सेवक ने उससे घर चलने के लिए आग्रह किया। सोफिया ने टालकर कहा-पापा, इस समय मुझे क्षमा कीजिए, सूरदास की हालत बहुत नाजुक है। मेरे रहने से डॉक्टर और अन्य कर्मचारी विशेष धयान देते हैं। मैं न रहूँगी, तो कोई उसे पूछेगा भी नहीं। आइए, जरा देखिए। आपको आश्चर्य होगा कि इस हालत में भी वह कितना चैतन्य है और कितनी अकलमंदी की बातें करता है! मुझे तो वह मानव-देह में कोई फरिश्ता मालूम होता है।
सेवक-मेरे जाने से उसे रंज तो न होगा?
सोफिया-कदापि नहीं, पापा, इसका विचार ही मन में न लाइए। उसके हृदय में द्वेष और मालिन्य की गंध तक नहीं है।
दोनों प्राणी सूरदास के पास गए, तो वह मनस्ताप से विकल हो रहा था। मि. सेवक बोले-सूरदास, कैसी तबीयत है?
सूरदास-साहब, सलाम। बहुत अच्छा हूँ। मेरे धन्य भाग। मैं मरते-मरते बड़ा आदमी हो जाऊँगा।
सेवक-नहीं-नहीं सूरदास, ऐसी बातें न करो, तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे।
सूरदास-(हँसकर) अब जीकर क्या करूँगा? इस समय मरूँगा, तो बैकुंठ पाऊँगा, फिर न जाने क्या हो। जैसे खेत कटने का एक समय है, उसी तरह मरने का भी एक समय होता है। पक जाने पर खेत न कटे, तो नाज सड़ जाएगा, मेरी भी वही दशा होगी। मैं भी कई आदमियों को जानता हूँ, जो आज से दस बरस पहले मरते, तो लोग उनका जस गाते, आज उनकी निंदा हो रही है।
सेवक-मेरे हाथों तुम्हारा बड़ा अहित हुआ। इसके लिए मुझे क्षमा करना।
सूरदास-मेरा तो आपने कोई अहित नहीं किया, मुझसे और आपसे दुसमनी ही कौन-सी थी? हम और आप आमने-सामने की पालियों में खेले। आपने भरसक जोर लगाया, मैंने भी भरसक जोर लगाया। जिसको जीतना था, जीता; जिसको हारना था, हारा। खिलाड़ियों में बैर नहीं होता। खेल में रोते तो लड़कों को भी लाज आती है। खेल में चोट लग जाए, चाहे जान निकल जाए; पर बैर-भाव न आना चाहिए। मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है।
सेवक-सूरदास, अगर इस तत्तव को, जीवन के इस रहस्य को, मैं भी तुम्हारी भाँति समझ सकता, तो आज यह नौबत न आती। मुझे याद है, तुमने एक बार मेरे कारखाने को आग से बचाया था। मैं तुम्हारी जगह होता, तो शायद आग में और तेल डाल देता। तुम इस संग्राम में निपुण हो सूरदास, मैं तुम्हारे आगे निरा बालक हूँ। लोकमत के अनुसार मैं जीता और तुम हारे, पर मैं जीतकर भी दुखी हूँ, तुम हारकर भी सुखी हो। तुम्हारे नाम की पूजा हो रही है, मेरी प्रतिमा बनाकर लोग जला रहे हैं। मैं धन, मान, प्रतिष्ठा रखते हुए भी तुमसे सम्मुख होकर न लड़ सका। सरकार की आड़ से लड़ा। मुझे जब अवसर मिला, मैंने तुम्हारे ऊपर कुटिल आघात किया। इसका मुझे खेद है।
मरणासन्न मनुष्य का वे लोग भी स्वच्छंद होकर कीर्ति-गान करते हैं, जिनका जीवन उससे बैर साधने में ही कटा हो; क्योंकि अब उससे किसी हानि की शंका नहीं होती। सूरदास ने उदार भाव से कहा-नहीं साहब, आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। धूर्तता तो निर्बलों का हथियार है। बलवान कभी नीच नहीं होता।
सेवक-हाँ सूरदास, होना वही चाहिए, जो तुम कहते हो; पर ऐसा होता नहीं। मैंने नीति का कभी पालन नहीं किया। मैं संसार को क्रीड़ा-क्षेत्र नहीं, संग्राम-क्षेत्र समझता रहा, और युध्द में छल, कपट, गुप्त आघात सभी कुछ किया जाता है। धर्मयुध्द के दिन अब नहीं रहे।

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